नेहरू जी चाहते तो ‘ग्वादर पोर्ट’ भारत का महत्चपूर्ण हिस्सा होता

74 साल पुरानी कहानी, कैसे बना ‘ग्वादर पोर्ट’ पाकिस्तान का हिस्सा

नई दिल्लीः इंदिरा गांधी सरकार के दौरान ‘कच्चातिवु’ द्वीप श्रीलंका को दिए जाने का मुद्दा 50 साल बाद लोकसभा चुनाव में भी गूंज रहा है। इस मुद्दे पर बीजेपी कांग्रेस पर हमलावर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तकरीबन हर रैलियों में इस मुद्दे को उठाते हुए कांग्रेस को घेर रहे हैं। उस पर देश की संप्रभुता से समझौते का आरोप लगा रहे हैं। कच्चातिवु द्वीप तो भारत ने 1974 में श्रीलंका को दिया था

अब आज ‘ग्वादर पोर्ट’ पाकिस्तान का एक महत्वपूर्ण पोर्ट है, यदि 1950 के दशक में भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने ओमान के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया होता तो यह महत्वपूर्ण ‘ग्वादर पोर्ट’ भारत के पास होता। ओमान से इस क्षेत्र को भारत को बेचने का प्रस्ताव मिला था। बाद में पाकिस्तान ने 1958 में इसे ओमान से खरीदा। अब चीन-पाकिस्तान ने इस आर्थिक गलियारे ने ग्वादर के महत्व को बढ़ाया है, जिस पर भारत ने आपत्ति जताई है।
ओमान ने ‘ग्वादर पोर्ट’ बेचने की पेशकश नेहरू से की थी, जो उस समय एक छोटा मछली पकड़ने वाला गांव था। हालांकि, तत्कालीन केंद्र सरकार ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। इसके बाद पाकिस्तान ने 1958 में इसे तीन मिलियन पाउंड में खरीद लिया।

1958 में पाकिस्तान ने खरीदा ग्वादर
पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत स्थित मकरान तट पर ये ग्वादर पोर्ट स्थित है। शुरू में ये क्षेत्र हथौड़े के आकार का नजर आता था, जिसे लोग मछली पकड़ने वाला गांव कहते थे। हालांकि, आज ये पाकिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा बंदरगाह है। चीन के सपोर्ट से अब ये क्षेत्र तेजी से विकास की ओर अग्रसर नजर आ रहा। ह
ग्वादर हमेशा पाकिस्तान का हिस्सा नहीं था। ग्वादर 1783 से ओमान के सुल्तान के कब्जे में था। यह 1950 के दशक तक करीब 200 वर्षों तक ओमानी शासन के अधीन था। 1958 में ग्वादर आखिरकार पाकिस्तानी कब्जे में आया। हालांकि, इससे पहले ओमान ने ग्वादर को भारत की सरकार को ऑफर किया था। हालांकि, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अस्वीकार कर दिया था।

जानिए ग्वादर का पूरा इतिहास
रिटायर्ड ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल ने 2016 में एक ओपिनियन पीस ‘‘द हिस्टोरिक ब्लंडर ऑफ इंडिया नो वन टॉक्स अबाउट’’ में इस बात का जिक्र किया।

उन्होंने कहा कि ओमान के सुल्तान से बेशकीमती गिफ्ट स्वीकार नहीं करना देश की आजादी के बाद हुई रणनीतिक भूलों की लंबी लिस्ट में एक और बड़ी गलती थी। पाकिस्तान के पास ये क्षेत्र जाने से पहले कलत के खान, मीर नूरी नसीर खान बलूच ने मस्कट के राजकुमार, सुल्तान बिन अहमद को यह एरिया उपहार में दिया था।
आर्किविस्ट मार्टिन वुडवर्ड के लेख ‘ग्वादर- द सुल्तान पजेशन’ के अनुसार, 1895 और 1904 के बीच कलत के खान और (ब्रिटिश) इंडिया सरकार दोनों की तरफ से ओमान से ग्वादर खरीदने के लिए प्रस्ताव दिए गए, लेकिन कोई निर्णय नहीं लिया गया।

नेहरू का इनकार, फिर पाकिस्तान से बनी बात
विशेष रूप से, यह वही कलत के खान था जिसने बलूचिस्तान पर शासन किया था, जब तक कि इसे मार्च 1948 में मुहम्मद अली जिन्ना के अधीन नव स्वतंत्र पाकिस्तान की ओर से कब्जा नहीं कर लिया गया था।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य प्रमित पाल चैधरी के अनुसार दो भारतीय राजनयिकों की निजी बातचीत में जो रिकॉर्ड सामने आए उसके मुताबिक, ओमान के सुल्तान ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ग्वादर की पेशकश की थी। प्रमित पाल चैधरी कहते हैं कि मेरा मानना है कि यह प्रस्ताव 1956 में आया था। तब जवाहरलाल नेहरू ने इसे ठुकरा दिया। 1958 में, ओमान ने ग्वादर को पाकिस्तान को 3 मिलियन पाउंड में बेच दिया।

जैन समुदाय ने भी ग्वादर में दिखाया था इंटरेस्ट
रिटायर्ड ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल के अनुसार, यह प्रस्ताव शायद मौखिक रूप से दिया गया था। प्रमित पाल चैधरी कहते हैं कि राष्ट्रीय अभिलेखागार में ‘ग्वादर’ बहस पर दस्तावेज और कुछ समाचार पत्र लेख हैं, लेकिन भारतीय अधिकारियों के विचारों को एडिट किया गया है।

वास्तव में, भारत का जैन समुदाय ओमान से ग्वादर खरीदने में रुचि रखता था। अजहर अहमद ने अपने पेपर ‘ग्वादर- ए हिस्टोरिकल कैलिडोस्कोप’ में लिखा कि ब्रिटिश सरकार की ओर से घोषित दस्तावेजों से पता चलता है कि भारत में जैन समुदाय ने भी ग्वादर खरीदने की पेशकश की थी। जैन समुदाय के पास बहुत धन था और वह अच्छी कीमत दे सकता था।
अजहर ने पाकिस्तान के पूर्व विदेश सचिव अकरम जाकी के साथ 2016 की बातचीत के आधार पर कहा कि 1958 में, यह जानने के बाद कि भारतीय भी ग्वादर खरीदने की कोशिश कर रहा, पाकिस्तान सरकार ने अपने प्रयासों को तेज किया। यही नहीं 1 अगस्त, 1958 को ब्रिटिश सरकार के साथ एक समझौता करने में सफल रही। ग्वादर को ओमान से ब्रिटिश नियंत्रण में स्थानांतरित कर दिया गया, बाद में पाकिस्तान को सौंप दिया गया।

पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध की उम्मीद नेहरू ने नहीं लिया ग्वादर
भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने ग्वादर खरीदने में रुचि क्यों नहीं दिखाई इसे लेकर कई बातें सामने आईं। प्रमित पाल चैधरी बताते हैं कि तर्क यह था कि ग्वादर पाकिस्तान के किसी भी हमले से बचाव योग्य नहीं था। यह देखते हुए कि नेहरू अभी भी पाकिस्तान के साथ एक सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की उम्मीद कर रहे थे। ऐसे में ग्वादर जैसा एक क्षेत्र शायद व्यर्थ में उकसावे की वजह बन सकता था।

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