लखनऊ में पारंपरिक ज्वैलरी को रीडिफाइन कर जूट से बुनी गई ज्वैलरी की चमक बढ़ा रही महिलाएं

लखनऊः फैशन की दुनिया में जहां एक ओर सोने, चांदी और हीरे जैसी पारंपरिक सामग्री से बने जेवरातों का बोलबाला है. वहीं आधुनिकता और पर्यावरण के प्रति जागरूकता ने एक नए विकल्प को जन्म दिया है. लखनऊ के रसूलपूर गांव की महिलाएं अपनी अद्वितीय कलाकारी के माध्यम से जुट की ज्वैलरी बनाकर न केवल फैशन की नई परिभाषा गढ़ रही हैं, बल्कि आत्मनिर्भरता की एक नई दिशा भी प्रस्तुत कर रही है।
स्थानीय महिला प्राची जो इस अनोखे पहल की अगुवाई कर रही हैं. बताती हैं कि जुट की ज्वैलरी मूल रूप से कोलकाता में बनाई और पहनी जाती है. लेकिन अब लखनऊ, मुंबई जैसे शहरों में इसकी मांग बढ़ती जा रही है.
इस पहल की शुरुआत जुट से बने बैग्स तक सीमित थी. लेकिन जुट सेंटर की अंजली के एक सुझाव ने हम महिलाओ को नई दिशा दी। ”जब बाजार में सोना, चांदी, और आर्टिफिशियल ज्वैलरी की इतनी मांग है तो जुट से बनी ज्वैलरी क्यों नहीं” ? इसी सोच के साथ महिलाओं को जुट ज्वैलरी बनाने की ट्रेनिंग लेने और व्यापार का एक नया आयाम देने की प्रेरणा मिली।
बहुत बारीकी से काम किया जाता है
प्राची का कहना है महिलाओं द्वारा बनाई गई ज्वैलरी में ब्रेसलेट, इयरिंग्स, पेंडेंट्स और चाबी गुच्छा जैसे आइटम शामिल हैं.जबकि,हम महिलाएं द्वारा बनाए गए डिजाइन की संख्या 1000 को पार कर चुकी है। जिसमें दुर्गा पेंडेंट और स्टोन पेंडेंट सबसे अधिक लोकप्रिय हैं।
इस ज्वैलरी को बनाने में बहुत बारीकी से काम किया जाता है.जिसमें कार्डबोर्ड को बेस के रूप में उपयोग किया जाता है और मोती, कौड़ी, स्टोन, और भगवान की तस्वीरें जैसे अलंकरणों से सजाया जाता है.
अपने कला से आत्मनिर्भर बन रही हैं
इस ज्वैलरी की कीमत इसके काम पर निर्भर करती है. सबसे सस्ती ज्वैलरी सेट 150 रुपए में और चाबी गुच्छा महज 50 रुपए में उपलब्ध है.जबकि, इस ज्वैलरी की विशेषता यह है कि इसे 1 से 2 साल तक आराम से पहना जा सकता है, बस इसे पानी से बचाने की जरूरत होती है. यहां की महिलाएं जो कभी परिस्थितियों के आगे बेबस नजर आती थीं आज अपनी किस्मत खुद लिख रही हैं और अपने काम के माध्यम से न केवल आत्मनिर्भर बन रही हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति एक जागरूकता भी फैला रही हैं।