लोकसभा चुनाव 24ः भाजपा/एनडीए के लिए बड़ी चुनौतियां!

राम मंदिर निर्माण के बाद और भी हैं कई सवाल?

2014 और 2019 का प्रदर्शन अपनी जगह था लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा के लिए चुनौतियां भी कम नहीं है। बेहतर परिणाम के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी। हारी और कम अंतर से जीती 20 से ज्यादा सीटों पर लड़ाई पर कड़ी चुनौती रहेगी।

अब सभी 80 सीटें जीत पाने को करिश्मा भी माना जा रहा है। वैसे से आपातकाल के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में हो चुका है। तब जनता पार्टी उस समय की सभी 85 सीटों पर अपना परचम फहराने में कामयाब हुई थी।

साल 2014 और 2017 के चुनाव की तरह तत्कालीन सरकार के खिलाफ वाला माहौल भी नहीं है। सरकार भाजपा की है। 2014 की तरह चतुष्कोणीय मुकाबला नहीं है। तब भाजपा-अपना दल, कांग्रेस-रालोद-महान दल गठबंधन के अलावा बसपा और सपा के बीच चतुष्कोणीय चैसर सजी थी। 2019 की तरह महागठबंधन जरूर सामने नहीं है, लेकिन त्रिकोण बनाने को मैदान में उतरी बसपा के पास पहले जैसे दमदार प्रत्याशी नजर नहीं आ रहे हैं।

सपा के गढ़ वाली मैनपुरी और कांग्रेस का किला रही रायबरेली दो ऐसी सीटें हैं, जो भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण रही हैं। पिछले चुनाव में हारी और कड़े मुकाबले वाली 20 से ज्यादा सीटों के हालात अब भी पिछले आमचुनाव से ज्यादा भिन्न नहीं हैं। उल्टा कई सीटों पर मोदी फैक्टर की जगह प्रत्याशी फैक्टर हावी है। अब तक घोषित 63 सीटों में से करीब 10 ऐसी हैं, जहां मतदाता इस बार भाजपा से नए चेहरे की उम्मीद कर रहा था। पर, पार्टी ने श्रामलहरश् का प्रभाव मानकर पुराने को ही उतार दिया।

2019 में बसपा प्रदेश की 37 सीटों पर मैदान में नहीं थी। ऐसी सीटों पर अपवाद स्वरूप छोड़कर दलित वोट महागठबंधन के बजाय भाजपा की ओर शिफ्ट हो गया था, जिसकी वजह से भाजपा की सीटें 2014 की अपेक्षा घटने के बावजूद मत प्रतिशत बढ़ गया था। तीसरा, इस चुनाव में सत्ताधारी दल के काम, व्यवहार और आचरण की भी लोग चर्चा कर रहे हैं। चुनाव कार्यक्रम के एलान के साथ ही अलग-अलग इलाकाई फैक्टर उभरने लगे हैं। एक और बड़ी बात-पिछले दो चुनावों में भाजपा की सीटें बढ़ने की जगह घटी हैं। भाजपा 2014 की अपनी 71 सीटों की जगह 2019 में 62 सीटें और 2017 के विधानसभा चुनाव में मिलीं 312 सीटों के मुकाबले 2022 में 255 सीटें ही जीत सकी। ऐसा तब हुआ जब दोनों ही चुनाव राज्य व केंद्र की डबल इंजन सरकार के सत्ता में रहते हुए संपन्न हुए हैं।

एक बड़ी बात और… भाजपा कार्यकर्ता आजकल कहीं भी कहते मिल जाते हैं कि अब तो मंडल और जिलों से क्षेत्र तक के संगठन में काडर की जगह विधायकों, मंत्रियों और सांसदों के पिछलग्गू पदाधिकारियों के नाम गिनाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि ऐसे पदाधिकारी संगठन की शक्ति बढ़ाने की जगह अपने नेता की भक्ति में डूबे रहते हैं। इससे जमीनी कार्यकर्ता हताश हो रहे हैं।

इन सबसे हटकर प्रचंड गर्मी में मतदाताओं को घर से निकालने की बड़ी चुनौती होगी। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि हमारा वोटर पॉजिटिव फैक्टर जैसी धारणा में चुनाव तक पूरा माहौल बनाकर वोट के दिन घर बैठ जाता है। अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद यूपी सहित भाजपा की कई राज्य सरकारें बर्खास्त कर दी गईं। बाद के चुनाव में बर्खास्तगी के खिलाफ ऐसा आक्रोश नजर आ रहा था कि जिससे लग रहा था कि दो तिहाई बहुमत से सरकार बनेगी। पर, हुआ उल्टा।

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय में पहली बार केंद्र सरकार ने अपने काम पर वोट मांगने का साहस दिखाया था। अति उत्साह में चुनाव के लिए श्इंडिया शाइनिंगश् का नारा दे दिया गया। चुनाव भर खूब उत्साह नजर आया। पर, नतीजे आए तो ढेर थे।

सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के सारे जतन
2014 की सफलता से बेहतर प्रदर्शन के लिए पार्टी ने रणनीति और चुनाव प्रबंधन से लेकर आक्रामक प्रचार अभियान की जोरदार तैयारी की है। यह चुनाव के पहले से और अब प्रचार-अभियान की शुरुआत तक साफ-साफ नजर आ रहा है।

चुनाव के ठीक पहले भाजपा ने श्रीराम मंदिर का निर्माण और भगवान श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा कर अपना सबसे बड़ा चुनावी वादा पूरा किया। इसे भाजपा श्जो कहा, सो कियाश् की तरह प्रचारित कर रही है। भाजपा इस माहौल को बनाए रखने के लिए पूरी ताकत से लगी हुई है। भाजपा सरकार वाले राज्यों के मुख्यमंत्री सहित उनकी कैबिनेट तक अयोध्या आकर दर्शन कर चुकी है। इससे उन राज्यों सहित यूपी में लगातार चर्चा और माहौल बना हुआ है। बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं को अयोध्या लाकर दर्शन कराया गया है।

बसपा अकेले चुनाव मैदान में है। इससे चुनाव त्रिकोणीय बनने के आसार बढ़ गए हैं। त्रिकोणीय मुकाबले में बसपा अपनी उम्मीद तलाश रही है, लेकिन सियासी पंडित इसे व्यापक स्तर पर भाजपा के लिए मुफीद मान रहे हैं। बसपा ने मुस्लिम प्रभाव वाली कई सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी देकर दूसरे विपक्षी दलों की बेचैनी बढ़ा दी है।

भाजपा ने हारी सीटों को जीतने के लिए खास रणनीति के हिसाब से काम किया है। पूर्वांचल में राजभर समाज के नेता ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा व पश्चिम में जाट समाज के नेता जयंत चैधरी की पार्टी रालोद से भी हाथ मिला लिया है। दारा सिंह चैहान के भाजपा में आने से नोनिया-चैहान समाज के बीच समीकरण सुधरेगा। सुभासपा व रालोद राज्य सरकार का भी हिस्सा बन चुके हैं।

भाजपा में पीएम नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा व यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ सहित स्टार प्रचारकों की लंबी फौज है। दूसरी ओर सपा की पूरी रणनीति अखिलेश यादव और बसपा की मायावती पर केंद्रित है। कांग्रेस सिर्फ 17 सीटों पर लड़ रही है और अपने प्रदेश अध्यक्ष अजय राय को भी प्रत्याशी बना दिया है। राहुल-प्रियंका और मल्लिकार्जुन खरगे कितना समय दे पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी।

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